*भारतीय शास्त्रीय संगीत गायन से संबंधित “सुर लय ताल” पुस्तक के मुख्य सम्पादक संगीतज्ञ- श्याम कुमार चन्द्रा जी की प्रिय शिष्या “श्रीमती पुष्पा प्रवीण परजिया” तंजानिया इस्ट अफ्रीका द्वारा पुस्तक में शामिल करने के लिए “संगीत का महत्व” विषय पर एक लेख प्रेषित की गई है*
*भारतीय शास्त्रीय संगीत गायन से संबंधित “सुर लय ताल” पुस्तक के मुख्य सम्पादक संगीतज्ञ- श्याम कुमार चन्द्रा जी की प्रिय शिष्या “श्रीमती पुष्पा प्रवीण परजिया” तंजानिया इस्ट अफ्रीका द्वारा पुस्तक में शामिल करने के लिए “संगीत का महत्व” विषय पर एक लेख प्रेषित की गई है, जो नीचे लिखे अनुसार है ।*******
*संगीत !* यह कितना प्यारा शब्द है कि जिसे सुनते ही मन में अनेक स्वर लहरियाँ उभर आतीं हैं, अनंत काल से संगीत की महिमा में कभी कोई कमी नहीं आई, अपितु हम यदि प्राचीन काल तो क्या युगों की बात करें तो भी सही है, हर युग में “संगीत का महत्व” सदैव ही रहा था, रहा है और रहेगा।
संगीत की आवश्यकता जीवन के हरेक समय में होती ही रही है, क्योंकि जब इंसान अतिशय दुखी हो जाता है तब वह अपना दुःख भगवान के भजनों को सुनकर कम करता है और यदि इंसान के जीवन में सुख का समय आता है तब भी वह जीवन में संगीत के साथ ही अपनी खुशियों को मनाता है और उसे दोगुना करता है ।
बेहद थका हुआ इंसान भी यदि आराम से बैठकर पाँच मिनिट ही सही संगीत सुन लेता है तो उसकी थकान कम हो जाती है और खूबी की बात तो यह है कि संगीत के कई प्रकार हैं, जिससे हर कोई अपनी पसंद के अनुसार चुनकर उसे सुन सकता है, गा सकता है और ख़ुद को उसमें ढाल भी सकता है, संगीत का क्षेत्र विशाल है उसे बड़े-बड़े संगीतज्ञ ज्ञानी लोग ही इसकी विशालता को समझ सकते हैं और शब्दों को सुर दे सकते हैं, ये कोई साधारण इंसान के बस की बात नहीं है कि इसकी गहराई तक जा सकें या इसे समझ सकें इसलिए मैं बहुत गहराई तक संगीत के बारे में ज़्यादा लिख नहीं सकती मेरे संगीत गुरूजी संगीतज्ञ श्याम कुमार चन्द्रा जी के मार्गदर्शन में बस एक वाक्य में इतना ही कहूँगी कि जिसे कृष्ण ने राधाजी और गोपियों के लिए, मीरा ने कान्हा के लिए, सूरदास जी ने अपने भगवान को रिझाने के लिए उपयोगी समझा वो तो बस एक संगीत ही था, अभी भी है और रहेगा भी इसलिए “संगीत का महत्व” इतना महत्वपूर्ण है कि वह मनुष्यों के साथ ही साथ- पशु पेड़ पौधों को भी तरो-ताजा कर देता है।
इसलिए मेरे विचार से संगीत के महत्व के बारे में जितना भी कहा जाय वह कम ही होगा अर्थात् संगीत का महत्व पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड में एक महाशक्ति के रूप में व्याप्त रहा है, अभी भी है और भविष्य में भी रहेगा, यह सर्व विदित है कि इस सृष्टि की उत्पत्ति भी संगीत संबंधी ब्रह्म-नाद ओंकार ध्वनि से ही हुई है।
वृक्ष का मूल बीज है, तो जीव-धारियों के संदर्भ में सृजन की भूमिका रज-वीर्य की मानी गई है, चिंगारी में जहां विशाल दावानल प्रच्छन्न होता है, वहीं धन एवं ऋण धाराओं के संयोग से विद्युत की उत्पत्ति कोई छिपा तथ्य नहीं है। आत्मा ही परमात्मा की अंशधर है और उसी से प्रकट होकर अंततः उसी में विलीन हो जाती है, इसे भी सब जानते हैं, इसकी विशेषता यह है कि यह सार्वकालिक, सार्वदेशिक एवं शाश्वत है, इस प्रकार ध्वनि से यात्रा आरंभ होकर फिर ध्वनि में ही समाप्त होती है, यह ध्वनि लोक लोकांतरों में सर्वत्र गुंजायमान है, इसी से अनंत विश्व की सृष्टि होती है, यही सृष्टि का आदि केन्द्र भी है, किन्तु हृदय में स्थित इस विंदु तक पहुंचने के लिए साधनात्मक प्रवृत्तियों एवं शास्त्रीय संगीत गायन भजन-कीर्तन संबंधी उपासनात्मक उपचारों का लंबे समय तक आश्रय लेना पड़ता है, यह एक स्थाई विधान है किन्तु हर मनुष्य को संगीत की साधना के लिए अपने सामर्थ के अनुसार थोड़ा-बहुत ही सही किन्तु कुछ प्रयास तो करना ही चाहिए, इसे जानने समझने व सीखने के लिए अपने पहुंच के अनुसार किसी विशेष जानकार संगीत गुरु के संरक्षण में संगीत समूह में शामिल होकर सर्वप्रथम स्वरों की जानकारी स्वराभ्यास अलंकार से शुभारंभ करने चाहिए, अलंकार के बाद थाट व राग की बारिकियों को समझने के लिए “सुर लय और ताल” के बारे में संगीत के शास्त्र एवं क्रियात्मक दोनों पक्ष को जानने के लिए संगीत की परीक्षा भी आयोजित की जाती है, जैसे अभी श्याम संगीत सृजन संस्थान सक्ती छत्तीसगढ़ द्वारा वर्तमान में आनलाइन सुविधाएं के साथ भी संचालित किया जा रहा है, जिसमें शामिल होकर संगीत के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है।
संगीत में मुख्य तीन विषय होते हैं इसीलिए कहा गया है “गीतं वाद्यं तथा नृत्यम् त्रयं संगीतमुच्यते” अर्थात् गायन वादन और नृत्य तीनों के समूह रूप को ही संगीत कहा जाता है। किसी भी संगीत प्रेमी को अपनी रूचि अनुसार किसी एक विषय में शामिल होकर संगीत सीखना चाहिए।
प्राचीन संगीत मर्मग्य भर्तृहरि जी के द्वारा कहा भी गया है कि *”साहित्य-संगीत-कला-विहीन:। साक्षात्पशु: पुच्छ-विसाण-हीन:।।”*
अर्थात् साहित्य और संगीत कला से विहीन व्यक्ति बिना पूंछ और सिंग के साक्षात् पशु के समान है, इस प्रकार संगीत का महत्व मनुष्य जीवन के लिए बहुत बड़ा एवं अति आवश्यक है।
*लेखिका :–*
*श्रीमती पुष्पा प्रवीण परजिया*
तंजानिया (इस्ट अफ्रीका)
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