*राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र, मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर — अंधेरे में टिमटिमाते सपने,पढ़िए गांव की हालात!*

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*राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र, मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर — अंधेरे में टिमटिमाते सपने,पढ़िए गांव की हालात!*

हमर छत्तीसगढ़ न्यूज नारायण राठौर

धरमजयगढ/- धरमजयगढ विकासखंड के हरे-भरे जंगलों की गोद में बसा एक छोटा-सा गांव लोटा, जहां मात्र सात से आठ घरों में निवास करते हैं पहाड़ी कोरवा जनजाति के लोग — वे जिन्हें राष्ट्र के प्रथम नागरिक, भारत के राष्ट्रपति ने “दत्तक पुत्र” के रूप में स्वीकारा। लेकिन यह दत्तक संबंध केवल काग़ज़ों तक सीमित रह गया है। लोटा गांव की खामोशी चीख़-चीख़ कर व्यवस्था की निष्क्रियता पर सवाल उठा रही है, पर सुनने वाला कोई नहीं। हम बात कर रहे हैं, धरमजयगढ विकासखंड के ग्राम पंचायत कुमा के आश्रित गांव लोटा का जहां पर लगभग 8 से 9 घर निवासरत है। जहां पर राष्ट्रपति दत्तक पुत्र पहाड़ी कोरवा बसे हुए हैं। लेकिन वहीं लोटा गांव की हालत ऐसी है, मानो आज़ादी की रोशनी यहां कभी पहुंची ही न हो। न पीने का स्वच्छ पानी, न सड़क की सुविधा, न ही बिजली का नामोनिशान। विकास की गाड़ी इस गांव को पार कर कहीं और निकल गई और लोटा गांव, उसी पुराने बदहाली के मोड़ पर ठिठका खड़ा है। आखिरकार ग्राम पंचायत, विकास आखिर कर कहां रहा है।

स्थानीय निवासी सुकूलराम येदगे, जो स्वयं पहाड़ी कोरवा जनजाति से हैं, बताते हैं-

“हम आज भी ढोढ़ी नाला का पानी पीकर जीवन जीते हैं, सहाब। न कोई पीने का पानी देने आया, न बिजली दी, न सड़क बनाई। हमारे सुख-दुख पूछने वाला कोई नहीं है।”

शब्दों में छिपा उनका दर्द व्यवस्था की गूंगी दीवारों से टकरा कर लौट आता है। उनके अनुसार, गांव से पांच किलोमीटर दूर एकमात्र स्कूल स्थित है, पर वहां तक पहुंचना बच्चों के लिए एक असंभव यात्रा है। कच्चे, पथरीले रास्ते, जंगलों के बीच से होकर जाना पड़ता है — ऐसे में शिक्षा सपना बनकर रह गई है।

देश जब अमृत काल की ओर अग्रसर हो रहा है, डिजिटल इंडिया और स्मार्ट गांवों की चर्चा चरम पर है, तब यह दृश्य चिंतन को विवश करता है कि क्या वाकई विकास समावेशी हो पाया है?

और वहीं लोटा जैसे गांवों की व्यथा सिर्फ एक समाचार नहीं, बल्कि व्यवस्था के आत्मचिंतन का विषय है। राष्ट्रपति के “दत्तक पुत्र” होने का गौरव यदि केवल उपाधि बनकर रह जाए, तो इससे बड़ा उपहास और क्या होगा?

अब समय है, कि शासन-प्रशासन केवल घोषणा पत्रों में नहीं, ज़मीन पर भी उतरकर इन बस्तियों को उनका हक़ दिलाए — एक ऐसा हक़ जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ा है।

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